मीडिया की राष्ट्रवाद के संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका रही है : अच्युतानंद मिश्र
'भारतीय
संदर्भ
मे जो
हमारी
सांस्कृतिक
चेतना
है वह
राष्ट्रबोध
को समाज
के सामने
लाकर खड़ा
कर देती
है इसलिए
मीडिया
की राष्ट्रवाद
के संदर्भ
में हमेशा
से ही
महत्वपूर्ण
भूमिका
रही है।
और मीडिया
से पहले
साहित्य
ने इस
चेतना
को जन-जन
में व्याप्त
किया है।'
ये शब्द
दिल्ली विश्वविद्यालय
के पी.जी.डी.ए.वी.
कॉलेज (सांध्य)
के मीडिया
प्रकोष्ठ द्वारा
26-27 अप्रैल
2018 को 'मीडिया,
साहित्य और
राष्ट्रवाद' विषय
पर आयोजित
दो दिवसीय
अन्तरराष्ट्रीय
संगोष्ठी के
अवसर पर
वरिष्ठ पत्रकार
श्री अच्युतानंद
मिश्र ने
कहे। कार्यक्रम
में मुख्य
अतिथि के
रूप 'भारतीय
जनसंचार संस्थान'
के महानिदेशक
श्री के.जी.
सुरेश और
बीज वक्ता
के रूप
में श्री
सच्चिदानंद जोशी
उपस्थित थे।
संगोष्ठी
के आरम्भ
में आरम्भ
में संगोष्ठी
के संयोजक
और सत्र
के संचालक
डॉ. हरीश
अरोड़ा ने
सभी सम्मानित
अतिथियों को
स्वागत कराते
हुए इस
संगोष्ठी की
प्रासंगिकता के
सम्बन्ध में
बोलते हुए
कहा कि
आधुनिक
समय में
जिन भारतीय
विचारणाओं
ने भारत
राष्ट्र
की जीवन-चेतना
को निर्मित
किया उस
विचारणा
में राष्ट्रबोध
सर्वोपरि
रहा है।
लेकिन
वर्तमान
दौर में
राष्ट्रबोध
की अभिकल्पना
पर ही
प्रश्नचिह्न
लगाने
का प्रयास
किया जा
रहा है।
इसलिए
इस संगोष्ठी
के माध्यम
से भारतीय
जीवन और
उसके अस्मितिय
प्रतिमानों
के सम्बन्ध
में विचार
किया जाना
जरूरी
हो गया
है।
संगोष्ठी
के आरम्भ
में कॉलेज
के प्राचार्य
डॉ. रवीन्द्र
कुमार
गुप्ता ने
इस संगोष्ठी
में विभिन्न
राज्यों और
विदेश से
आए अतिथि
मेहमानों और
मंचस्थ अतिथियों
का स्वागत
करते हुए
कहा कि
कॉलेज अपनी
स्थापना के
60वें में
इस अन्तरराष्ट्रीय
संगोष्ठी का
आयोजन कर
रहा है।
उन्होंने कहा
कि इस
संगोष्ठी
के अवसर
पर विभिन्न
राज्यों
से आए
हुए प्रतिभागियों
ने आज
कॉलेज
में लघु
भारत उपस्थित
कर दिया
है और
इससे बढक़र
राष्ट्रीयता
और क्या
हो सकती
है! उन्होंने
राष्ट्रवाद
शब्द को
भारतेतर
बताते
हुए कहा
कि 'वाद'
भारतीय
दर्शन
में कहीं
भी निहित
नहीं है।
वाद से
विवाद
नहीं होना
चाहिए
बल्कि
वाद से
संवाद
होना चाहिए।
संगोष्ठी में बीज वक्तव्य देते हुए श्री सच्चिदानंद जोशी ने राष्ट्रवाद को विश्लेषित करते हुए कहा कि हम केवल भौगोलिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं, संस्कृति को भूल जाते हैं जबकि भारत के लिए राष्ट्रवाद उसकी संस्कृति में ही समाहित है। उन्होंने कहा कि हमारे देश में संवाद की संस्कृति रही है। भारत ने सम्पूर्ण विश्व को संवाद करना सिखाया है किन्तु आज हमारा हम संवाद के स्थान पर विवाद में ही उलझ गए हैं।
संगोष्ठी में बीज वक्तव्य देते हुए श्री सच्चिदानंद जोशी ने राष्ट्रवाद को विश्लेषित करते हुए कहा कि हम केवल भौगोलिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं, संस्कृति को भूल जाते हैं जबकि भारत के लिए राष्ट्रवाद उसकी संस्कृति में ही समाहित है। उन्होंने कहा कि हमारे देश में संवाद की संस्कृति रही है। भारत ने सम्पूर्ण विश्व को संवाद करना सिखाया है किन्तु आज हमारा हम संवाद के स्थान पर विवाद में ही उलझ गए हैं।
कार्यक्रम
के मुख्य
अतिथि श्री
के.जी.
सुरेश ने
भाषायी एकता
को ही
राष्ट्रवाद की
असली कड़ी
माना। उन्होंने
कहा कि
भाषाओं के
आधार पर
हम राष्ट्र
को बाँट
नहीं सकते।
भाषाएं तो
सभी को
जोड़ने का
कार्य करती
हैं। उन्होंने
संयुक्त राष्ट्र
की 'राष्ट्र-राज्य'
की संकल्पना
को भारतीय
संदर्भों में
अस्वीकार कर
दिया। उन्होंने
पत्रकारिता की
उपयोगिता पर
बल देते
हुए कहा
कि समस्या
केन्दि्रत पत्रकारिता
को समाधान
केन्दि्रत पत्रकारिता
होना चाहिए।
संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र से पूर्व ही भारत और विदेशों से आए लगभग 140 प्रतिभागिताओं ने अपने शोध पत्रों का वाचन किया। इस अवसर पर हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी तथा कन्नड़ भाषाओं के समानान्तर चार सत्र चले।
संगोष्ठी
के दूसरे
दिन 'मीडिया,
राष्ट्रीयता और
राष्ट्रवाद' सत्र
में प्रो.
कुमुद शर्मा
की अध्यक्षता
में पंजाब
केसरी समाचार-पत्र
की निदेशिका
और समाजसेविका
श्रीमती किरण
चोपड़ा तथा
माखनलाल चतुर्वेदी
पत्रकारिता एवं
संचार विश्वविद्यालय
के नोएडा
केन्द्र के
प्रभारी प्रो.
अरुण कुमार
भगत ने
अपने विचार
रखे। प्रो.
अरुण कुमार
ने कहा
कि आ
भी राष्ट्र
पत्रकारिता से
ही प्रेरणा
ग्रहण करता
है। देश
की एकता
और अखण्डता
को बनाए
रखने के
लिए यह
महत्त्पवपूर्ण
है। उन्होंने
कहा कि
देश में
जब अलगवाद
और आंतरिक
कलह की
स्थितियाँ आती
हैं तो
पत्रकारिता का
महत्त्व और
बढ़ जाता
है। उन्होंने
स्वतंत्रतपूर्व
की राष्ट्रवादी
पत्रकारिता के
महत्त्व पर
भी प्रकाश
डाला।
इस सत्र की विशिष्ट वक्ता श्रीमती किरण चोपड़ा ने बताया कि आज़ादी की लड़ाई के समय से ही हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व रहा है। लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक ने जयहिंद पत्रिका की शुरुआत की, उस समय मेरे ग्रेट ग्रांड फादर लाल जगत नारायण जी इसके सम्पादक थे। इस पत्र ने स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना भरपूर योगदान दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद से ही मीडिया आरम्भ होता है और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठा ही उसका दायित्व है।
इस सत्र की विशिष्ट वक्ता श्रीमती किरण चोपड़ा ने बताया कि आज़ादी की लड़ाई के समय से ही हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व रहा है। लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक ने जयहिंद पत्रिका की शुरुआत की, उस समय मेरे ग्रेट ग्रांड फादर लाल जगत नारायण जी इसके सम्पादक थे। इस पत्र ने स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना भरपूर योगदान दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद से ही मीडिया आरम्भ होता है और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठा ही उसका दायित्व है।
सत्र
की अध्यक्षता
करते हुए
प्रो.
कुमुद
शर्मा ने
कहा कि
पत्रकारिता में
निर्भीकता होना
बहुत जरूरी
है। ग्लोबल
मीडिया के
इस दौर
में पत्रकारिता
में मायने
बदल गए
हैं। पहले
मीडिया में
एडिटर हुआ
करते थे
और आज
उसका स्थान
मार्केटिंग एडिटर
ने ले
लिया है।
उन्होंने अनेक
धारावाहिकों के
उदाहरण देते
हुए यह
स्थापित किया
कि समय
के अनुसार
राष्ट्रवाद अपने
स्वरूप को
स्वयं ही
निर्धारित और
सशक्त बनाता
है। इस
सत्र का
संचालन डॉ.
ज्योत्स्ना प्रभाकर
ने किया।
संगोष्ठी
के चौथे
और अंतिम
सत्र में
साहित्य और
राष्ट्रवाद के
अन्तर्सम्बन्धों
पर प्रो.
पूरनचंद टण्डन
की अध्यक्षता
में प्रो.
चंदन चौबे
तथा आधुनिक
साहित्य पत्रिका
के सम्पादक
श्री आशीष
कंधवे ने
अपने विचार
रखे। श्री
आशीष कंधवे
ने कहा
कि हिन्दी
साहित्य में
लघु पत्रिकाओं
ने ही
राष्ट्रवाद की
नींव को
मजबूती से
स्थापित किया।
ये लघु
पत्रिकाएं आज
भी व्यावसायिकता
के दौर
में पत्रकारिता
के मूल्यों
को दृढ़ता
से बनाए
रखते हुए
राष्ट्रीय चेतना
को वैश्विक
स्तर पर
पहुँचाने में
अपनी भूमिका
निभा रही
हैं। उन्होंने
अनेक साहित्यिक
पत्रिकाओं के
द्वारा सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद के
दृढ़ स्वरूप
को बनाए
रखने में
उनकी भूमिका
पर विस्तार
से विचार
किया।
इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. चंदन चौबे ने नेशन और राष्ट्र के अंतर को समझने पर बल देते हुए कहा कि भारत नेशन नहीं राष्ट्र है। उन्होंने कहा कि हमारा मूल्य बोध समाज केन्दि्रत है, सत्ता केन्दि्रत नहीं। समस्या तब आती है जब हम राष्ट्रवाद की अवधारणा को सत्ता केन्दि्रत मान लेते हैं। हमारा मूल्यबोध ही हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहचान है जो उस पर चलने को हमें प्रेरित करता है। उन्होंने ताज बेगम और अन्य कवियों के उद्धरणों को रखते हुए स्थापित किया कि राष्ट्र के नाम पर शोर मचाना कविता का काम नहीं बल्कि मौन के क्षणों की अनुभूतियों को चुन लेना ही रचना की विशेषता है।
सत्र के अध्यक्ष प्रो. पूरन चंद टण्डन ने भारतीय साहित्य के औदात्य और उसकी गौरवशाली परम्परा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय साहित्य तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यथार्थ प्रमाण है। भारतीय साहित्य की प्रत्येक रचना भारत की जीवन शैली और भारतीय जीवन मूल्यों को हज़ारो वर्षों से संजोकर निरन्तर आगे बढ़ाती रही है। उन्होंने माना कि हिन्दी साहित्य का मध्यकाल भारतीय साहित्य को स्वर्णिम काल इसीलिए है क्योंकि उस साहित्य में भारतीय संस्कृति के सभी सूत्र समाज के सामने आते हैं। इस सत्र का संचालन करते हुए डॉ. रुक्मिणी ने कहा भारतीय साहित्य की नींव इतनी मजबूत है कि उस पर टिका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भवन लाखों वर्षो तक कभी ढह नहीं सकता।
इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. चंदन चौबे ने नेशन और राष्ट्र के अंतर को समझने पर बल देते हुए कहा कि भारत नेशन नहीं राष्ट्र है। उन्होंने कहा कि हमारा मूल्य बोध समाज केन्दि्रत है, सत्ता केन्दि्रत नहीं। समस्या तब आती है जब हम राष्ट्रवाद की अवधारणा को सत्ता केन्दि्रत मान लेते हैं। हमारा मूल्यबोध ही हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहचान है जो उस पर चलने को हमें प्रेरित करता है। उन्होंने ताज बेगम और अन्य कवियों के उद्धरणों को रखते हुए स्थापित किया कि राष्ट्र के नाम पर शोर मचाना कविता का काम नहीं बल्कि मौन के क्षणों की अनुभूतियों को चुन लेना ही रचना की विशेषता है।
सत्र के अध्यक्ष प्रो. पूरन चंद टण्डन ने भारतीय साहित्य के औदात्य और उसकी गौरवशाली परम्परा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारतीय साहित्य तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यथार्थ प्रमाण है। भारतीय साहित्य की प्रत्येक रचना भारत की जीवन शैली और भारतीय जीवन मूल्यों को हज़ारो वर्षों से संजोकर निरन्तर आगे बढ़ाती रही है। उन्होंने माना कि हिन्दी साहित्य का मध्यकाल भारतीय साहित्य को स्वर्णिम काल इसीलिए है क्योंकि उस साहित्य में भारतीय संस्कृति के सभी सूत्र समाज के सामने आते हैं। इस सत्र का संचालन करते हुए डॉ. रुक्मिणी ने कहा भारतीय साहित्य की नींव इतनी मजबूत है कि उस पर टिका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भवन लाखों वर्षो तक कभी ढह नहीं सकता।
संगोष्ठी
के अंत
में डॉ.
सुरेश
चन्द्र
शर्मा ने
सभी वक्ताओं
का आभार
व्यक्त करते
हुए कहा
कि इस
दो दिन
की संगोष्ठी
में उठने
वाले प्रश्नों
के उत्तर
निश्चित रूप
से हमें
मिल ही
गए होंगे।
उनके अनुसार
संगोष्ठी का
सम्पूर्ण निष्कर्ष
मीडिया, साहित्य
और राष्ट्रवाद
के सम्बन्धों
को गम्भीरता
से व्याख्यायित
करता हुआ
चरम पर
पहुँचा है।
इस अवसर पर कन्नड़ भाषा की पुस्तक के सम्पादक प्रो. एस.टी. मेरवाडे, डॉ. विद्यावती राजपूत तथा एस.जे. पवार की उपस्थिति विशेष रही। पंजाबी सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ. विनयनीत कौर ने राष्ट्रीय चेतना में पंजाबी साहित्य और मीडिया के अवदान पर अपने महत्त्पूर्ण विचार रखे। अंग्रेज़ी सत्र में डॉ. रेणुकाधर बजाज ने भारतीय समाज में राष्ट्र के प्रति सोच पर चिन्ता व्यक्त करते हुए मीडिया को उसके प्रति जागृत होने का विचार प्रदान किया। डॉ. आशा रानी, प्रो. पुष्पा रानी और डॉ. विपिन कुमार गुप्त ने हिन्दी सत्रों के समानान्तर सत्रों की अध्यक्षता करते हुए मीडिया और साहित्य की राष्ट्र के प्रति भूमिका पर अपने विचारों को रखा।
संगोष्ठी के कुछ चित्र
इस अवसर पर कन्नड़ भाषा की पुस्तक के सम्पादक प्रो. एस.टी. मेरवाडे, डॉ. विद्यावती राजपूत तथा एस.जे. पवार की उपस्थिति विशेष रही। पंजाबी सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ. विनयनीत कौर ने राष्ट्रीय चेतना में पंजाबी साहित्य और मीडिया के अवदान पर अपने महत्त्पूर्ण विचार रखे। अंग्रेज़ी सत्र में डॉ. रेणुकाधर बजाज ने भारतीय समाज में राष्ट्र के प्रति सोच पर चिन्ता व्यक्त करते हुए मीडिया को उसके प्रति जागृत होने का विचार प्रदान किया। डॉ. आशा रानी, प्रो. पुष्पा रानी और डॉ. विपिन कुमार गुप्त ने हिन्दी सत्रों के समानान्तर सत्रों की अध्यक्षता करते हुए मीडिया और साहित्य की राष्ट्र के प्रति भूमिका पर अपने विचारों को रखा।
संगोष्ठी के कुछ चित्र
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